Saturday, June 5, 2010

मुश्किल . . .


कागज पे जो लिखता हूँ, मैं तेरा नाम पानी से,
मुझे मुश्किल से न समझी, न समझी वो आसानी से !!

कभी आना तो मिलना, मेरी इस लाचारगी से तुम,
जो अब भी प्यार करता हूँ, उसी महलों की रानी से !!

Friday, May 21, 2010

तुम्हारा नाम . . .



मेरी साँसों के हर स्वर में, तुम्हारा नाम आया है !
मेरे हाथों में रह-रह के, ऐ साकी जाम आया है !!

तेरे गम ने मुझे पाने की ये, साजिश रची कैसे ?
तेरा दामन किसी के हाथ में, वो थाम आया है !!

Thursday, May 13, 2010

ख़ुशी का ताज . . .



कभी अपने होठों पे गीतों का,
हम भी साज सा रखते थे !

न थे आँखों में तब आंसू,
ख़ुशी का ताज सा रखते थे !!

तुम जो साथ चलती जिंदगी के तन्हा सफ़र में,
तो देखती कि कोई गम न होता;

क्योंकि हम अपने दिल में,
सिर्फ एक तुम्हें मुमताज सा रखते थे !!

Monday, May 3, 2010

नज़रों का जादू . . .



है ग़ज़लों की वो हस्ती अपनी, जो फटते शब्द सिया देती हैं,
है जिगरों में वो मस्ती अपनी, जो मय को नशीला बना देती है !

लाख लगाओ चन्दन लेपन, तुम निखरोगी जब हम निहारेंगे,
है नज़रों का वो जादू अपनी, जो सूखे वृक्ष जिया देती हैं !!

Wednesday, April 28, 2010

जीवन सी पतंग . . .

तुम चली गयी कहके, मुझको फिर न आना है,
न ही तू है मेरे काबिल, न मेरा दीवाना है !!

क्या सितम किया मैंने,  कैसे तुमने छोड़ा है ?
इन ग़मों के सागर को, मेरी ओर मोड़ा है !!

मैंने समझा जीवन सी, तुम पतंग की मांझा हो,
तुम ही मेरी लैला हो, तुम ही मेरा राँझा हो !!

तुमको क्या बताऊँ कैसे, खुद को अब संभाला है ?
गम की गोद में सोया, आंसुओं ने पाला है !!

आज कैसे जाना तुमने, ये शहर हमारा है ?
हमारी ये गलियां हैं, ये ही घर हमारा है !!

आज करती प्यार तुम भी, और मेरा प्यार जाना है,
जब मेरे है पास सबकुछ, पीछे ये जमाना है !!

- प्रसून दीक्षित 'अंकुर'

Sunday, April 25, 2010

मेरी मोहब्बत . . .


मेरी मोहब्बत को तुमने, हकीकत होने न दिया !
इस तरह सताकर तुमने, हंसने क्या रोने न दिया !!

चैन गरीबों की किस्मत में, लिखा कहाँ है जान-ए-मन ?
भूख ने कभी तो कभी, गम ने भी तेरे सोने न दिया !!

Wednesday, April 21, 2010

फाइव स्टार का आर्डर . . .


न जाने क्यों सभी ने, इक यही सवाल रखा था ?
क्यों मैंने जिंदगी को, मौत का दलाल रखा था ?

कोई रामू के ठेले पर अब, चाट खाने नहीं जाता,
मैंने देखा था इक दिन. पंछी कोई हलाल रखा था !

मुझे तो गाँव की आब-ओ-हवा ही रास आती है,
फाइव स्टार के आर्डर में, चावल-दाल रखा था !

कॉलेज की कैन्टीन की वो, आखिरी बेन्च नहीं भूली जाती,
जिस पर मेरे नाम का तुमने, इक रुमाल रखा था !

मुहल्ले की चमेली, घर से जब बन-ठन के चलती है,
लड़के छेड़कर कहते हैं, कहाँ ये जमाल रखा था ?

कभी मेरे घरों की, तुम जो दीवारों को पढोगे,
कहोगे, वाह मियां ! क्या शेर यहाँ कमाल रखा था !

कोई पूछे तो रह-रह के, अपना नाम बता तो देता हूँ 'प्रसून',
मगर माँ ने तो मेरी, नाम मेरा 'लाल' रखा था !

Wednesday, February 3, 2010

प्यार की सौदागरी . . .




जिंदगी ये सोंचकर जीना, कि वो तेरी हबीब नहीं होगी ;
बस चार दिन बाद मौत से, बचने की
तरकीब नहीं होगी !!


अब भी घर लौटने की बात सुनकर, बच्चे दर पे आ जाते हैं ;
उन्हें खबर नहीं कि अब्बा के हाथ में, कशीब नहीं होगी !!


तुम उनकी याद को
अपने, सीने से लगाकर रखो हमेशा ;
कभी तुम न होगे पास, तो कभी वो करीब नहीं होगी !!


तुम्हारी हद की आखिरी मंजिल हो जहाँ तक, बोली बढ़ा लेना ;

माँ प्यार की सौदागरी में, किसी से भी गरीब नहीं होगी !!


हर एक आशिक से सुना है, उनकी रंगीन महफ़िल का हाल ;

तुम्हें पता नहीं कि उमराव में, अब वो तहजीब नहीं होगी !!


तमाम उम्र उनकी जुबान के, अल्फाज़ नहीं भुला पाया 'प्रसून' ;

कि तुझे अब मैं क्या ? मेरी लाश भी नसीब नहीं होगी !!


: - प्रसून दीक्षित 'अंकुर'

Monday, January 25, 2010

क्या यही चिड़िया सोने वाली है ?




मेरी आँखों में केसरिया मेरी बातों में हरियाली है !
वही ख़ाक-ए-वतन खुशबू, वही गेहूं की बाली है !!



कोई सुर्खी लिए बैठा है, कहीं पे शांत सफेदी है !
कभी आओगे तो पूछोगे क्या यही चिड़िया सोने वाली है ?



नामुमकिन शब्द ही है एक बस न मानो तो सुन लो !
यही धरती भगत की और साबरमती संत वाली है !!



जमी से फलक तक हरसू नजर आ रहा तिरंगा मेरा !
है हिन्दोस्ताँ गुलिस्ताँ जैसे, तिरंगा इसका माली है !!



चलो हम भी करें कुछ देश की खातिर मेरे यारों !
हमारी रगों में भी तो एक चिंगारी सोलह-साली है !!



न बंद कमरों में रह-रह के वन्दे मातरम कहो !
बीती रात काली, सुबह कुछ नया करने वाली है !!

Saturday, January 23, 2010

कितनी मासूमियत से . . .



तेरा पल्लू जो इक बार मेरे, जनाजे से रगड़ गया होता !
खुदा भी मेरे लिए लिखी, तकदीर से झगड़ गया होता !!


मिल जाता मेरी रूह को, चैन-ओ-करार ऐ दुनियावालों !
जो कल रात उस बुढ़िया को देख, तेरा बदन अकड़ गया होता !!



कितनी मासूमियत से, तूने निहारा था पहली बार मुझे !
चमक जो पड़ती खंजर की आँखों में, तो पकड़ गया होता !!



मैं अपनी जिंदगी के, ये हर्फ़ लिखूं तो कहाँ लिखूं ?
कागज़ पे लिखता, तो एक दिन कूड़े में सड़ गया होता !!



तुम आ गए हो भटकते-भटकते, ये कहाँ 'प्रसून' ?
हमसफ़र जो कोई साथ होता, तो तू इतना न बिगड़ गया होता !!
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