Saturday, January 23, 2010

कितनी मासूमियत से . . .



तेरा पल्लू जो इक बार मेरे, जनाजे से रगड़ गया होता !
खुदा भी मेरे लिए लिखी, तकदीर से झगड़ गया होता !!


मिल जाता मेरी रूह को, चैन-ओ-करार ऐ दुनियावालों !
जो कल रात उस बुढ़िया को देख, तेरा बदन अकड़ गया होता !!



कितनी मासूमियत से, तूने निहारा था पहली बार मुझे !
चमक जो पड़ती खंजर की आँखों में, तो पकड़ गया होता !!



मैं अपनी जिंदगी के, ये हर्फ़ लिखूं तो कहाँ लिखूं ?
कागज़ पे लिखता, तो एक दिन कूड़े में सड़ गया होता !!



तुम आ गए हो भटकते-भटकते, ये कहाँ 'प्रसून' ?
हमसफ़र जो कोई साथ होता, तो तू इतना न बिगड़ गया होता !!

5 comments:

  1. बहुत खूब लिखा है,
    शुभ-कामनाएं.....

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  2. मेरे प्यारे भाई!! बहुत लबरेज़ जज़्बा है आपका,सम्मान करता हूँ!!
    लेकिन यदि इक अदना सी मेरी राय मान लो तो और बात बन जाए!

    लिख रहे हो अच्छी बात है, लेकिन इतना ही साहित्य-अदब पढने में भी समय दो.
    हाँ अपनी ज़रूरीयात से समय बचाकर!

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  3. priye shahroz ji sahi kah rahe hai baut umda soch hai ye bhi sahi hai ki padna bhi bahut jaruri hai meri shubhkamna aap ke sath hai

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  4. YOu have done good job


    keep writing !!

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  5. मिल जाता मेरी रूह को, चैन-ओ-करार ऐ दुनियावालों !
    जो कल रात उस बुढ़िया को देख, तेरा बदन अकड़ गया होता !!"
    "कुछ दर्द है यहाँ इन पंक्तियों में...."
    regards

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